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कोई खिड़की तो
खुली, खुली, खुली
तभी ऐसा लगे
ढली रात है, रात है, रात है
डरी, डरी, डरी, दबे, दबे, दबे
पैरों से वो चली
कांच की घास पे
घास पे, घास पे
काली सी डिब्बी में हुई वो क़ैद थी
चंदा की मारी हमने गुलेल थी
तारों की चाभी से खुली सुफैद सी
सुबह, सुबह, सुबह, सुबह
जुगनी हे... उड़ी हे...
नये नये पर लिए
ओ पिंजरा खोल
ओ पिंजरा खोल ओ...
जुगनी हे... उड़ी हे...
दिल में घर किए
ओ पिंजरा खोल
ओ पिंजरा खोल ओ...
रख हौसले
दो न इसे अभी, फ़लसफ़े
झूठे लगे सभी
हो गये, हैं चकनाचूर चकनाचूर
जो रौशनी... चल के यहाँ वहां
ओढ़े हुए... चलने लगे कहां
हुज़ूर है... खुद का नूर, खुद का नूर
चौखट पे मांगी जिसकी मुराद थी
जिसके लिए वो इतनी उदास थी
कोई ना जाने कितनी वो ख़ास थी
सुबह, सुबह, सुबह, सुबह
जुगनी हे... उड़ी हे...
नये-नये पर लिए
ओ पिंजरा खोल, ओ पिंजरा खोल ओ...
जुगनी हे... उड़ी हे...
दिल में घर किए
ओ पिंजरा खोल, ओ पिंजरा खोल ओ...